- वन्‍यजीव विशेषज्ञों ने कहा- तेंदुए से टकराव के लिए इंसान भी जिम्‍मेदार

लखनऊ। पीलीभीत से पूर्वी यूपी के कतर्नियाघाट तक पिछले कुछ दिनों में इंसानों और तेंदुए के बीच टकराव  बढ़ा है। कुछ वन्‍यजीव विशेषज्ञों ने कहा कि इसके पीछे कई कारण ऐसे हैं जिनके लिए इंसान जिम्‍मेदार हैं।
वन्यजीव मामलों के विशेषज्ञ वरिष्ठ आईएफएस आधिकारी रमेश पाण्डेय का मानना है कि तेंदुए जंगल में हों या जंगल के बाहर खेतों में, वह जहां भी बड़ी घास देखते हैं वहीं रहना पसंद करते है। इन्‍हीं जगहों वह अपना स्थाई निवास बनाते हैं और उसी में अपने परिवार को भी बढ़ाते हैं। उत्तर प्रदेश का पीलीभीत से बहराइच तक का जो इलाका है उसमें गन्ने की फसल बहुतायत में होती है। गन्ना एक ऐसी फसल है जिसे तेंदुआ बड़ी घास समझ कर अपना निवास बना लेता है।
यही समस्‍या की जड़ है। क्‍योंकि गन्ना जब कट जाता है तो उसका घर उजड़ जाता है। इस कारण उसका कोई स्थाई ठिकाना नहीं रह जाता और वह इधर-उधर खेतों में भटकने लगता है। इसी दौरान इंसान के सामने पड़ने पर संघर्ष की स्थित उतपन्न होती है और मार्च से मई तक मानव और जंगली जानवरों के संघर्ष की घटनाएं बढ़ जाती हैं।
जिस तरह मार्च से मई के बीच तेंदुए के हमलों की घटनाएं बढ़ जाती हैं उसी तरह जाड़ों के दिनों में भी यही होता है। इस समय ये प्रजनन अवस्था मे होते हैं। इसलिए अपने छोटे बच्चों की सुरक्षा के लिए आक्रामक हो जाते हैं। उन दिनों भी घटनाएं बढ़ जाती हैं। इस तरह के हादसे कम हों इसके लिए गन्ना विभाग, उद्यान विभाग, वन विभाग और विश्व प्रकृति निधि ने कतर्नियाघाट रेंज के गांवों में एक पायलेट प्रोजेक्ट चलाया है।
यही एक कारण नहीं है कि मानव और जंगली जानवरों के संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हों। इस समय उत्तर प्रदेश में 404 तेंदुए और उत्तर प्रदेश के वेस्टर्नघाट लैण्ड स्केप में 646 से बढ़कर 804 टाइगर हो गए हैं। इनके रहने के लिए एक निश्चित स्थान चाहिए। जब ये बिग कैट्स जवान होने लगता है तो अपने रहने के लिए स्थान चिन्हित करता है। अमूमन यह 10 वर्ग किलोमीटर में जगह-जगह टायलेट करके दूसरे टाइगर या टाइग्रेस को यह बताते हैं कि यह मेरा इलाका है। इसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होगा।
इनकी संख्या बढ़ने से जंगल में जगह की कमी होती जा रही है, इसलिए यह जंगल के बाहर निकलते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि एक टाइगर अगर दूसरे टाइगर के इलाके में रहने की कोशिश करता है तो इनमें आपस में जंग होने लगती है। इसलिए इनको बाहर निकलना सुलभ लगता है।
अमूमन लोग यह समझते हैं कि जंगल सिकुड़ रहे हैं और उनके कारण मानव और जंगली जानवरों के संघर्ष बढ़ रहे हैं। आईएफएस आकाशदीप बधावन का मानना है कि अपेक्षाकृत जंगल उतने सिकुड़ नहीं रहे हैं। जंगल के पुराने नक्शों और वर्तमान जंगल में फर्क नहीं है, लेकिन मानव आबादी बढ़ने के कारण जंगल में मानव का हस्तक्षेप व आवागमन बहुत बढ़ा है। यही वन्यजीवन में बाधक बन रहा है। कुछ जगहों पर जंगल के बीच पक्की सड़कें और रेलवे लाइन भी हैं जो जंगली जानवरों के प्राकृतिक आवास और रहन-सहन में बाधा उतपन्न करती है। कतर्नियाघाट से पलिया तक जंगल के बीच बनी रेल लाइन को हटाए जाने के लिए भी वन विभाग कई बार लिख चुका है, लेकिन अभी यह लाइन चालू है और इससे कई जंगली जानवर कट कर मर भी चुके हैं।
इस प्रोजेक्ट में गन्ने से गन्ने की लाइन के बीच की दूरी दो मीटर होती है। इससे जानवर आसानी से छिप नहीं पाता और जो खाली जगह होती है, उसमें सहफसली में छोटी ऊँचाई की कोई दूसरी चीज जैसे हल्दी, मसूर और लाही आदि बो दी जाती है इससे किसान को भी फायदा होता है क्योंकि गन्ने की उपज कम नहीं होती है, लेकिन उसको अतिरिक्त फसल का लाभ मिल जाता है। इस प्रयोग की अभी रिपोर्ट आनी बाकी है कि इससे मानव और जंगली जानवर के संघर्ष में कितनी कमी आई है।

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