रवीन्द्र जाडेजा की पत्नी ने कल उनके पांव छुए। विजय के हर्षोल्लास में डूबे हजारों हजार प्रशंसक जब धोनी-धोनी कर रहे थे। खिलाड़ी मैदान में दौड़ पड़े थे तब रीवाबा जाडेजा भी मैदान में आईं। उन्होंने सबसे पहले अपने पति के पराक्रम को प्रणाम किया। फिर भावुक होकर गले लग गईं। भला आज के समय में कोई स्त्री इतनी पुरातनपंथी हो सकती है? कोई उड़ता हुआ चुम्मा देती!लव साइन बनातीं!कूल्हे मटकाती़!
यह तो बड़ा पतनोन्मुख था! पुरुषों से हर क्षेत्र में दो कदम आगे चलने वालीं स्त्रियां पुरुष के पांव क्यों छुए? वामपंथियों ने इस घटना की धज्जियां नहीं उड़ाई अब तक! आश्चर्य!! कोई कविता चीत्कार करती हुई आ जाती! मुझे भारत के लोकप्रिय खेल इतिहास में ऐसी किसी घटना का ध्यान नहीं आता, जब किसी खिलाड़ी की पत्नी ने भरी भीड़ में अपने विजयी पति के पांव छुए हों। मैं इस पर फूल कर कुप्पा नहीं हुआ जा रहा। ना ही यह मानता हूं कि वैदिक युग बस आने ही वाला है।
न मुझे यह अतिरेक हो रहा कि भारत में संस्कार की प्रचंड आंधी बहने लगी है। क्योंकि सार्वजनिक जीवन में तो मुझे आए दिन निराशा ही होती है। भारत तो किसी महानिद्रा से धीरे-धीरे जाग रहा है। अभी तो उसकी आंखें ढंग से खुलीं भी नहीं हैं।अभी वह लोभ मोह स्वार्थ, परनिंदा, सुविधाभोग, मुफ्तखोरी की शय्या का त्याग नहीं कर सका है। अभी वह अपने मित्र मार्गदर्शक और पथभ्रष्ट शत्रु का स्पष्ट भेद नहीं कर सकता है। कोई भ्रम उसे जकड़े बैठा है।संघर्ष लंबा है।
परन्तु..मैं पालागन का वह दृश्य भूल नहीं पा रहा। उसमें कुछ अनन्य है। हमारी संस्कृति में अत्यंत साधारण, किन्तु इस कालखंड के किसी सेलिब्रिटी समाज में असाधारण, अप्रत्याशित। जाडेजा की पत्नी पुरुषप्रधान समाज की शोषित अबला स्त्री नहीं है कि कवयित्रियों की छाती भर भर जाय। वह आधुनिक शक्तिसंपन्न नेतृ है। उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं थी। वह समय से झरा हुआ अभिवादन था! क्यों? परन्तु मैं उस रेट्रोग्रेसिव एक्सप्रेशन पर अभिभूत हूं। उस पर कोई गर्व नहीं। कोई भ्रम भी नहीं मुझे। कुछ है, जिसने मुझे स्तम्भित किया है। साभार
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