इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वकीलों की लगातार अनुपस्थिति पर कड़ा रुख अपनाया है। न्यायालय ने कहा है कि 'सूचीबद्ध मामलों में बार-बार अनुपस्थित रहना व्यावसायिक कदाचार है।'
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज स्थित इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायिक कार्यवाही में वकीलों की लगातार अनुपस्थिति पर कड़ा रुख अपनाया है। न्यायालय ने कहा है कि सूचीबद्ध मामलों में बार-बार अनुपस्थित रहना न केवल व्यावसायिक कदाचार है, बल्कि यह 'बेंच हंटिंग' और 'फोरम शॉपिंग' जैसी प्रवृत्तियों के समान है, जो न्यायिक प्रक्रिया को बाधित करती हैं।
न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एकल पीठ ने एक ज़मानत याचिका की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। न्यायालय ने कहा कि यह चलन आम हो गया है, जिसमें वकील कई तारीखों पर भी अदालत में उपस्थित नहीं होते, जिससे न्यायिक प्रक्रिया अनावश्यक रूप से लंबित हो रही है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की अनुपस्थिति पहली घटना नहीं है, बल्कि कई मामलों में लगातार देखी गई है। मामले में शिकायतकर्ता के अधिवक्ता ने कहा कि अभियुक्त का बयान सीआरपीसी की धारा 313 के तहत पहले ही दर्ज किया जा चुका है और मुकदमा अंतिम चरण में है। ऐसी स्थिति में, यह याचिका न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक विलंब पैदा करने का एक माध्यम प्रतीत होती है।
'अदालत का उद्देश्य विलंब करना नहीं, बल्कि निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करना है'
अदालत ने ईश्वरलाल माली राठौर बनाम गोपाल (सर्वोच्च न्यायालय) मामले का हवाला देते हुए कहा कि अदालतों को मामलों को अनावश्यक रूप से टालने का माध्यम नहीं बनने दिया जाना चाहिए। अदालत का उद्देश्य न्याय में देरी करना नहीं, बल्कि शीघ्र और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करना है।
अदालत ने कहा, "मामले को लंबित रखने के इरादे से न्यायिक कार्यवाही में बार-बार अनुपस्थित रहना और इसके लिए कोई वैध कारण न बताना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।" अदालत ने यह भी कहा कि भले ही आदेश उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है, लेकिन संतोषजनक स्पष्टीकरण के बिना अनुपस्थिति स्वीकार्य नहीं है। इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने याचिकाकर्ता पूजा की जमानत याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया।