- घर छोड़ने को मजबूर युवा, पलायन की समस्या का कैसे होगा समाधान? विशेष रिपोर्ट

घर छोड़ने को मजबूर युवा, पलायन की समस्या का कैसे होगा समाधान? विशेष रिपोर्ट

बिहार विधानसभा चुनाव में पलायन एक बड़ा मुद्दा बन गया है। बिहार में कई ऐतिहासिक कारखाने और मिलें हैं, जिन्हें राजनीतिक दल केवल चुनाव के समय ही याद करते हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए इन दिनों प्रचार ज़ोरों पर है। हर पार्टी रोज़गार और पलायन के मुद्दों पर वादे कर रही है। राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे वादों में सबसे प्रमुख है 42 सालों से बंद पड़ी अशोक पेपर मिल। शनिवार (1 नवंबर) को एबीपी न्यूज़ ने अपने कार्यक्रम "घंटी बजाओ" में 42 सालों से बंद पड़ी अशोक पेपर मिल का मुद्दा उठाया।

दरअसल, राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे वादों में से एक वादा बिहार में बंद पड़ी उन कारखानों और मिलों को फिर से शुरू करना भी है, जो कभी लोगों को रोज़गार देती थीं और उनके और उनके परिवारों का भरण-पोषण करती थीं। इनके बंद होने के बाद, पलायन लोगों के लिए एक आम बात हो गई। इनमें दरभंगा की अशोक पेपर मिल भी शामिल है।

चुनाव में फिर उठ रहा मुद्दा
यह ऐतिहासिक पेपर मिल 42 सालों से बंद पड़ी है। चुनावी गहमागहमी में इस पेपर मिल को फिर से शुरू करने का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या 42 साल बाद लोगों को रोज़गार देने वाली यह पेपर मिल फिर से खुलेगी या ये सिर्फ़ वादे हैं?

बिहार के लाखों लोग जो रोज़ी-रोटी कमाने के लिए अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं, उन्हें यह दर्द न सहना पड़ता। उन्हें ट्रेन से अपने घर जाने के लिए मजबूर न होना पड़ता। छठ मनाने के बाद उन्हें अपना गाँव-घर छोड़कर दूसरे राज्यों में न लौटना पड़ता। अगर बिहार के नेताओं ने उन्हें सिर्फ़ वोट बैंक न समझा होता, तो वे बदल जाते।

सरकार बदल गई, लेकिन मिल की छवि नहीं बदली।
अगर बिहार के नेताओं ने समाज सेवा के नाम पर सत्ता के सिंहासन को सुख भोगने का ज़रिया न समझा होता, तो उन्हें अपनों के अपनी गलियों से चले जाने का दर्द समझ आता। इसीलिए बिहार में सरकार बदली, मुख्यमंत्री बदले, लेकिन अगर कुछ और नहीं बदला, तो छवि और उनकी तकदीर ज़रूर बदल गई होती।

अशोक पेपर मिल 400 एकड़ में फैली थी।
बुनियादी सवाल यह है कि बिहार रोज़गार के मामले में इतना बदहाल क्यों है, यहाँ के युवा पलायन को क्यों मजबूर हैं? लगभग 400 एकड़ में फैली अशोक पेपर मिल का ज़िक्र कभी बिहार में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में होता था। यहाँ उत्पादित कागज़ की गुणवत्ता के ग्राहक विदेशों में भी थे। असम के जोगीघोपा में इसकी एक दूसरी शाखा भी खोली गई। इससे ही इसके उत्पादन की माँग का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

मिल से 50,000 लोग जुड़े थे
कच्चे माल की आपूर्ति के लिए थलवारा स्टेशन से एक निजी रेलवे लाइन बिछाई गई थी। यही रेलवे लाइन असम से कच्चा माल लाती थी। हालाँकि, 1960 में खुली अशोक पेपर मिल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50,000 से ज़्यादा लोग रोज़गार करते थे। कभी चहल-पहल से भरी इस मिल में 2,000 से ज़्यादा कर्मचारी थे। आज, यहाँ सन्नाटा पसरा है।

2,000 कर्मचारी वहाँ काम करते थे।
सवाल यह है कि जिस कारखाने का कागज़ विदेशों में निर्यात होता था और जिसमें 2,000 लोग काम करते थे, उसका क्या हुआ कि वह अपनी स्थापना के मात्र 23 साल बाद ही बंद हो गया और आज इस हालत में है?

क्या मिल इन कारणों से बंद हुई?

सिर्फ़ एक नहीं, बल्कि कई कारण बताए जाते हैं, जैसे वित्तीय घाटा, कर्ज़, कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, बिजली, कच्चे माल और धन की कमी। नतीजतन, अशोक पेपर मिल पर दुर्भाग्य के बादल मंडराने लगे। सरकारी उदासीनता ने मुसीबतों को और बढ़ा दिया।

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