संविधान और लोकतंत्र सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी जिन राजनीतिक दलों की है। वहीं राजनीतिक दल लोकतांत्रिक व्यवस्था का पालन नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण राजनीतिक दलों का लोकतंत्र अब केवल कागजों तक सीमित होकर रह गया है। राजनीतिक दलों में हाई कमान संस्कृति और अधिनायकवादी होने के कारण राजनीतिक दलों के अंदर लोकतंत्र मजाक बनकर रह गया है। भारत में राजनीतिक दलों को प्राथमिक सदस्य बनाने चाहिए। वार्ड स्तर पर और ब्लॉक स्तर पर सदस्यों द्वारा पदाधिकारी का चुनाव करना चाहिए। यही निर्वाचित प्रतिनिधि जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी का निर्वाचन करते हैं। इसी तरह से जब निर्वाचित प्रतिनिधि चुनकर आते हैं, तो वह अपना नेता चुनते हैं। जो संगठन के विभिन्न पदों की जिम्मेदारी समालना है। संवैधानिक संस्थाओं का अध्यक्ष, महापौर, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने की प्रक्रिया भी यही है। निर्वाचित होने के बाद राजनीतिक दल की जिम्मेदारियां का निर्वहन करता है। पिछले तीन-चार दशकों में लगभग-लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र की प्रक्रिया खत्म हो चुकी है।
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लगभग सभी राजनीतिक दलों में हाईकमान संस्कृति काफी मजबूत होकर उभरी है। हाईकमान के निर्देश और इशारे पर महत्वपूर्ण पदों पर उनके इच्छित व्यक्ति की नियुक्ति हो जाती है। सदस्यता और निर्वाचन लगभग खत्म हो गया है। रही-सही कसर दल बदल कानून ने पूरी कर दी है। जिसमें सदन के अंदर विहिप जारी करके किसके पक्ष में मतदान करना है, यह बता दिया जाता है। भले ही सदस्य की मत देने की इच्छा हो या ना हो सहमत हो या ना हो, लेकिन उसे अनिवार्य रूप से पार्टी हाईकमान की इच्छा के अनुरूप मतदान करना ही पड़ता है। अन्यथा उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है। दल-बदल कानून आने के बाद राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र लगभग लगभग समाप्त हो गया है। राजनीतिक दलों में खुले संवाद की संस्कृति लोप हो गई है। कांग्रेस में संवाद एवं निर्वाचन की यह संस्कृति स्वतंत्रता के समय से लेकर 1980 के दशक तक देखने को मिली। लेकिन अब कांग्रेस में भी यह संस्कृति लगभग-लगभग समाप्त हो चुकी है। भारतीय जनता पार्टी मैं यह संस्कृति कभी नहीं रही। संगठन के प्रमुख पदाधिकारी, आम सहमति के नाम पर कागजों पर पदाधिकारी बना लिए जाते हैं।