धार्मिक आस्थाओं और शास्त्रों के नियमों के बीच कई बार ऐसी घटनाएं घटती हैं जो न सिर्फ समाज को झकझोर देती हैं, बल्कि संतों और धर्माचार्यों के बीच गहरे मतभेद भी उजागर करती हैं। ऐसी ही एक घटना 14 जून 2025 को वाराणसी में हुई जब प्रख्यात कथावाचक मोरारी बापू ने अपनी पत्नी के निधन के कुछ दिन बाद सूतक काल में रामकथा और काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन किए। इस पर तीव्र विरोध शुरू हो गया। अब सवाल उठता है — क्या मोरारी बापू ने शास्त्रों की अवहेलना की?
या क्या यह वैष्णव परंपरा की एक स्वतंत्र धार्मिक अभिव्यक्ति थी?
?️ विवाद की जड़: क्या हुआ?
11 जून 2025: मोरारी बापू की पत्नी नर्मदा बेन का निधन हुआ।
14 जून 2025: बापू ने वाराणसी के रुद्राक्ष कन्वेंशन सेंटर में "मानस सिंदूर" रामकथा की शुरुआत की, और काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन किए।
विरोध का कारण: संतों और धार्मिक संगठनों ने इसे "सूतक काल में धार्मिक आयोजन और मंदिर प्रवेश" बताते हुए शास्त्रविरुद्ध करार दिया।
? विरोध क्यों?
✅ संत समाज का पक्ष:
स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती (अखिल भारतीय संत समिति):
"सूतक काल में कथा का आयोजन धर्म के स्थान पर अर्थ का साधन बन गया है। यह समाज के लिए शर्मनाक है।"
स्वामी नरेंद्रानंद सरस्वती:
"मंदिर में प्रवेश और देवताओं का स्पर्श सूतक काल में वर्जित होता है। मोरारी बापू ने धार्मिक मर्यादा का उल्लंघन किया है।"
प्रख्यात ज्योतिषाचार्य ऋषि महाराज:
"सूतक के नियम किसी एक संप्रदाय पर नहीं, पूरे सनातन धर्म पर समान रूप से लागू होते हैं।"
❗ क्या है सूतक?
हिंदू शास्त्रों में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद 10-13 दिन तक का जो अशौच काल (सूतक) होता है, उसमें धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ और मंदिर प्रवेश निषिद्ध माना गया है।
? मोरारी बापू का पक्ष:
बापू ने अपनी वैष्णव परंपरा का हवाला देते हुए कहा:
"हम न क्रिया करते हैं, न उत्तर-क्रिया। भगवान का भजन और कथा ही शांति देती है, सूतक नहीं।"
उन्होंने दर्शन पर स्पष्ट कहा:
"हमने तो भगवान के दर्शन किए हैं।"
उनका तर्क: वैष्णव परंपरा में मृत्यु के बाद शोक और सूतक जैसी अवधारणाओं का पालन अनिवार्य नहीं होता।
? धर्मशास्त्र की नजर से
धर्मशास्त्रों में गृहस्थ के लिए सूतक के नियम कठोर हैं, लेकिन संन्यासियों और कुछ वैष्णव पंथों के लिए यह बाध्यता नहीं मानी गई है।
मगर विरोध करने वाले संत कहते हैं कि बापू की व्यासपीठ और उनका सामाजिक प्रभाव गृहस्थों को भी प्रभावित करता है, इसलिए उन्हें व्यापक धार्मिक मर्यादा का पालन करना चाहिए था।
?️ सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं
पक्ष में विरोध में
"कथा तो आत्मा का भोजन है, कब से इसके लिए भी शुद्ध-अशुद्ध देखने लगे?" "धर्मगुरुओं को नियमों से ऊपर नहीं होना चाहिए।"
"बापू ने जो किया, वह भक्ति है।" "यह नियमों की सार्वजनिक अवहेलना है।"
? विश्लेषण: धर्म का दोहरा संकट
धार्मिक परंपराएं विविध हैं — भारत में शैव, वैष्णव, शाक्त, वेदांत, सिख, जैन इत्यादि परंपराएं हैं, और सबके अपने नियम हैं।
सार्वजनिक धर्माचार्य की जिम्मेदारी अधिक — जब कोई धर्मगुरु लाखों को प्रभावित करता है, तो हर क्रिया शास्त्रीय मर्यादा और सामाजिक भावना दोनों को संतुलित करनी होती है।
शास्त्र vs व्यक्ति की व्याख्या — क्या हर परंपरा को शास्त्रों से ऊपर माना जा सकता है?
? निष्कर्ष:
यह मामला केवल सूतक काल का नहीं है, बल्कि धार्मिक सत्ता, परंपरा की व्याख्या और धर्माचार्य की जवाबदेही से जुड़ा है।
मोरारी बापू जैसे लोकप्रिय संत को यह समझना होगा कि उनका हर कदम समाज में एक दिशा तय करता है।
वहीं, संत समाज को भी यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या धार्मिक विरोध के स्वर शांति और संवाद से नहीं उठने चाहिए?
? अंतिम पंक्तियाँ:
"धर्म तब तक जीवित है जब तक उसमें प्रश्न करने की आज़ादी हो। लेकिन वह टूटता है जब उसका उत्तर केवल आक्रोश और बहिष्कार होता है।"